रुठी सखी के नाम

Written by: Mukta D

आओ अपरिचित, स्वागत है तुम्हारा

तुम मिले हो, बहुत दिनों बाद।

तुम आज मिलकर आए हो, मेरी उस मित्र से,

जो मेरा नाम सुनते ही, मुँह फेर लेती होगी।

जिससे मेरी बात करने से, तुम भी कतराते होगे।

 

पर मैं जानती हूँ, मेरी उस घनिष्ठ मित्र को

वो भी मेरी बातें सुनने के लिए ही तुम्हें बुलाती है।

मैं जानती हूँ, एक-दूसरे की खबर

सिर्फ़ कालिदास के मेघ ही नहीं,

अजनबी भी दिया करते हैं।

 

आओ स्वागत है तुम्हारा।

मेरे मन के बंद द्वारों को खोल दो,

और जो भी मेरी सखी ने कहा वह बोल दो।

मैं जानती हूँ कि वह कुछ नहीं छुपा पाई होगी

कुछ बातों को याद कर हँसी होगी,

तो कुछ पर उसकी रुलाई फूट आई होगी।

 

तुम्हारा हाथ थामे,

वह हमारे रिश्ते की गर्मी महसूस करती होगी।

 

मेरी प्रिय सखी!

मैं विश्वास करती हूँ तुम्हारा अब भी,

और मान भी करती हूँ।

 

अपरिचित, मैं मंगलगीत लिखूँगी,

यदि तुम मेरी मित्र को बुला लाओ।

………………………………

 

किसी बात की तरह

 

किसी सूनी राह की तरह

आज फिर सबके बीच

मैंने खुद को तन्हा पाया।

 

इस उन्मुक्त आकाश के तले,

मैंने खुद को बँधा पाया।

 

तुम्हीं बताओ कि क्या

अँधेरे में कहीं उगता है सूरज?

क्या चाँद की रोशनी सबको मिली,

एक बराबर?

 

क्या मैंने देखा जब फूलों को

तो तुम्हें याद आई मेरी?

क्या गूँजी खनक, उस पायल की

जो शहनाई बनेगी, जीवन की?

 

क्या संगीत सुनाई दिया,

उन अश्रुओं का, जो बहाए मैंने उनींदे होकर?

क्या पता चली, वह वेदना

जो मिली मुझे

तुमसे विलग होकर?

क्या महसूस हुए,

वे सारे भाव, जो हैं

दुख के, सुख के,

प्रेम के, विरह के,

संयोग के, वियोग के?

क्या जीवन के अलंकार, रस और छंद,

तुम्हें गुनने को कहीं मिले?

क्या तुम खोज सके,

उन क्षणों में मुझे

जब मैं रही तुम्हारे आलिंगन में?

इतने सारे शब्दों और भावों के बीच,

क्या याद आई मैं तुम्हें?

या सिर्फ़ ज़िक्र हुआ,

मेरा

किसी बात की तरह।   

 

………………………..

जला तो है, पर धुआं नहीं

 

हर पहले दिन कोई कुछ बुनता है,

हर दूसरे दिन कोई कुछ लिखता है,

हर तीसरे दिन कोई उसे देखता है,

हर चौथे दिन कोई कुछ पढ़ता है,

पांचवें दिन वो शख़्स महसूस करता है

कि इन पांच दिनों के बीच में

कोई हर बार, कोई झांकता रहता है।

 

ये तांक-झांक का सिलसिला,

यूं ही चलता रहता है।

और इस बेकार की मशक्क्त में,

जाने किस-किस का दिल जलता रहता है।

 

पर मैं सोचती हूं कि इस जलने

में कौन ज्यादा जला है?

किसके पास राख है

और किसके पास धुआं है?

 

आंखों में आंसू तो नजर आते हैं,

पर ज़ुबान पर गिला नहीं।

हां, हां, ये आग है सीने की

मगर कहीं, धुआं नहीं, धुआं नहीं।।

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